कोशिकांग -
कोशिका में विभिन्न उपापचयी प्रक्रिया को सम्पन्न करने के लिए कोशिका के अंदर कोशिका द्रव्य में कई प्रकार के छोटी छोटी रचना पायी जाती है जिसे कोशिकांग या कोशिका अंगक कहते है।
अंतःप्रदव्यी जालिका , गॉल्जी उपकरण, राइबोसोम, लाइसोसोम माइटोकॉण्ड्रिया, लवक, रसधानी ये सभी कोशिकांग है।
जन्तु कोशिका(animal cell)
अंतः प्रद्रव्यी जालिका - जन्तु एवं पादप कोशिका में झिल्ली युक्त अनियमित नालिकाओ के जाल पाया जाता है जिसे अंतः प्रद्रव्यी जालिका या एंडोप्लाजिमक रेटिकुलम कहा जाता है। अंतः प्रद्रव्यी जालिका गोल या आयताकार थैली ( पुटिकाओ ) की तरह दिखाई देता है। इसकी रचना भी प्लाज्मा झिल्ली के समरूप होता है। अंतः प्रदव्यी जालिका लाइपोप्रोटीन की बनी होती है।
अंत: प्रद्रव्यी जालिका दो प्रकार की होती है
1. चिकनी अंतः प्रद्रव्यी जालिका
2.खुरदरी अंतः प्रद्रव्यी जालिका
1.खुरदरी अंतः प्रद्रव्यी जालिका-खुरदरी अंतः प्रद्रव्यी जालिका
के सतह पर राइबोसोम के कण पाये जाते है जिसके कारण इसकी सतह खुरदरी होती है। राइबोसोम में प्रोटीन का संश्लेषण होता है। और खुरदरी अंतः प्रद्रव्यी जालिका अंतः प्रद्रव्यी जालिका के माध्यम से प्रोटीन को कोशिका के अन्य भागों में भेज देता है ।
2.चिकनी अंतः प्रद्रव्यी जालिका - इस जालिका पर राइबोसोम के कण नहीं पाया जाता है । चिकनी अंतः प्रद्रव्यी जालिका वसा तथा कोलेस्ट्रॉल के संश्लेषण महत्वपूर्ण भूमिका निभाते है । कुछ प्रोटीन तथा वसा कोशिका झिल्ली के निर्माण मे सहायक होते है इस प्रक्रिया को झिल्ली जीवात् जनन कहा जाता है। कुछ प्रोटीन तथा वसा एंजाइम एवं हार्मोन की भांति कार्य करते है।
चूंकि अंतः प्रद्रव्यी जालिका विभिन्न कोशिकाओं में विभिन्न रूपो में दिखाई देती है परन्तु सदैव एक जालिका तंत्र का निर्माण करती है। अंतः प्रद्रव्यी जालिका कोशिका के कोशिका द्रव्य में अंतःकोशिकीय परिवहन तंत्र का निर्माण करता है। मुख्य रूप से प्रोटीन का संचार करता है।
गॉल्जी उपकरण - गॉल्जी उपकरण की खोज सर्वप्रथम 1898 ई० कैमिलो गॉल्जी ने की। गॉल्जी उपकरण एक पुटिका होती है। जो एक दूसरे के उपर समांतर रूप में सजी रहती है। जिसे कुडिंका कहते है । इस झिल्ली का संपर्क अंतः प्रदव्यी जालिका से होती है। अंतः प्रद्रव्यी जालिका में संश्लेषित पदार्थ को गाल्जी उपकरण मे पैक किया जाता है और उन्हे कोशिका के अंदर बाहर विभिन्न क्षेत्रो में भेजा जाता है। गॉल्जी उपकरण के द्वारा लाइसोसोम का निर्माण भी होता है। कभी कभी गॉल्जी उपकरण मे सामान्य शक्कर से जटिल शक्कर का निर्माण होता है।
लाइसोसोम - लाइसोसोम बहुत सुक्ष्म कोशिकांग है इसका आकार बहुत छोटा एवं थैली जैसा होता है। लाइसोसोम कोशिका के अपशिष्ट निपटाने वाला तंत्र होता है। लाइसासोम बाहरी पदार्थ के कोशिका अंगक के टूटे फूटे भागो को पाचित कर कोशिका को साफ करता है। लाइसोसोम मे बहुत शक्तिशाली एंजाइम पाये जाते है जिनमे जीवद्रव्य को नष्ट कर देने की क्षमता होती है ये एंजाइम सभी कार्बनिक पदार्थों को तोड़ने में सक्षम होता है। कोशिकीय चयापचय में व्यवधान के कारण जब कोशिका क्षतिग्रस्त या मृत हो जाता है तो लाइसोसोम फट जाते है और एंजाइम अपनी ही कोशिकाओं को पाचित कर देते है इसलिए लाइसोसोम को कोशिका के आत्मघाती थैली भी कहते है।
लाइसोसोम के कार्य -
लाइसोसोम कोशिका के अंदर प्रवेश करने वाले बड़े कणों एवं बाह्य पदार्थों का पाचन करता है।
लाइसोसोम बाहरी पदार्थों के कोशिका अंगक के टूटे फूटे भागों पाचित करके कोशिका को साफ करते है। कोशिका के अंदर आने वाले बाहरी पदार्थ जैसे बैक्ट्रीया अथवा भोजन तथा पुराने अंगक लाइसोसोम में चले जाते है जो उन्हे छोटे छोटे टुकड़ो में परिवर्तित कर देता है।
जीवाणु एवं वायरस से रक्षा करता है।
जिस कोशिका मे लाइसोसोम उपस्थित होता है। उसे आवश्यकता अनुसार नष्ट करने का कार्य करता है।
माइटोकॉण्ड्रिया - माइटोकॉण्ड्रिया कोशिका द्रव्य में पाई जाने वाली एक महत्वपूर्ण रचना है जो कोशिका द्रव्य में बिखरी होती है। माइटोकॉण्ड्रिया सुक्ष्म छड़ो या धागेनुमा दानेदार या गोलाकार दिखाई देते है। माइटोकॉण्ड्रिया कोशिका का बिजली घर होता है। क्योंकि जीवन के लिए आवश्यक विभिन्न रासायनिक क्रियाओ को करने के लिए माइटोकॉण्ड्रिया ATP के रूप में उर्जा प्रदान करता है। माइटोकॉण्ड्रिया में दोहरी झिल्ली होती है। प्रत्येक माइटोकॉण्ड्रिया एक बाहरी झिल्ली एवं एक अंतः झिल्ली से चारों ओर से घिरी होती है। तथा इसके बीच में एक तरलयुक्त गुहा होती है। जिसे माइटोकाण्ड्रियल गुहा कहते है। बाहरी झिल्ली छिद्रयुक्त होती है जबकि भीतरी झिल्ली बहुत अधिक वलित होती है। ये वलय ATP बनाने वाली रासायनिक क्रियाओं के लिए एक बड़ा क्षेत्र बनाते है। माइटोकॉण्ड्रिया बहुत अदभूत अंगक है। क्योंकि इसमें अपना DNA तथा राइबोसोम होते है। इसलिए माइटोकॉण्ड्रिया अपना कुछ प्रोटीन स्वयं बनाना में सक्षम होते है। माइटोकॉण्ड्रिया के भीतरी झिल्ली से अनेक प्रवर्ध निकलकर माइटो कॉण्ड्रियल गुहा मैट्रिक्स में लटकते रहते है। जिन्हे क्रिस्टी कहते है।
माइटोकॉण्ड्रिया के कार्य -
यह उर्जा ATP के रूप में संचित करता है और कोशिका नये यौगिक के निर्माण के समय ATP में संचित उर्जा का उपयोग करती है।
क्रिस्टी से अंदर की झिल्ली का सतह क्षेत्र बढ़ता है।
माइटोकांड्रिया को कोशिका के ऊर्जा गृह क्यो कहा जाता है?
माइटोकांड्रिया में कोशिकीय श्वसन के एंजाइम उपस्थित होते हैं।जिसके कारण भोजन का सम्पूर्ण ऑक्सीकरण होता है। जिसके फलस्वरूप जीव के लिए अतिआवश्यक ऊर्जा काफी मात्रा में मुक्त होती है। इसलिए माइटोकाण्ड्रिया को कोशिकीय उर्जा गृह कहा जाता है।
प्लैस्टिड - प्लैस्टिड या लवक केवल पादप कोशिकाओं में पाया जाने वाला कोशिकांग है। ये कोशिका द्रव्य के चारों ओर बिखरे रहते हैं। इसका आकार मुख्यतः अण्डाकार गोलाकार या तश्तरीनुमा होता है।
लवक या प्लैस्टिड दो प्रकार के होते है।
1. क्रोमोप्लास्ट 2.ल्यूकोप्लास्ट
क्रोमोप्लास्ट रंगीन होता है। जबकि ल्यूकोप्लास्ट श्वेत या रंगहीन होता है। जिस लवक में क्लोरोफिल वर्णक होता है। उसे क्लोरोप्लास्ट कहते है। पौधों में प्रकाश संश्लेषण के लिए क्लोटोप्लास्ट बहुत आवश्यक होता है। क्लोरोप्लास्ट में क्लोरोफिल के अतिरिक्त विभिन्न पीले अथवा नारंगी रंग के वर्णक भी होते हैं ल्यूकोप्लास्ट श्वेत या रंगहीन होता है जिसमें स्टार्च, तेल तथा प्रोटीन जैसे पदार्थ संचित होते है।
प्लैस्टिड बाह्य रचना में माइटोकॉण्ड्रिया की तरह होती है। माइटोकॉण्ड्रिया की तरह प्लैस्टिड में भी अपना DNA तथा राइबोसोम होते है।
लवक या प्लैस्टिड का कार्य -
ल्यूकोप्लास्ट मुख्यतः जड़ की कोशिकाओं में पाये जाते है। इसमें स्टार्च प्रोटीन तथा तेल जैसे पदार्थ संचित रहते है।
क्रोमोप्लास्ट फूलो और बीजों को विभिन्न रंग प्रदान करते है।
रसधानियाँ- रसधानियाँ ठोस अथवा तरल पदार्थों का संग्रहक थैलियां हैं। जन्तु कोशिकाओं में रसधानियाँ छोटी होती है जबकि पादप कोशिकाओं में रसधानियाँ बड़ी होती है। पादप कोशिकाओं के रसधानियो में कोशिका द्रव्य भरा रहता है।और ये कोशिकाओं को स्फीति एवं कठोरता प्रदान करती है ।पौधों के लिये आवश्यक बहुत से पदार्थ रसधानियों में स्थित होते हैं।जैसे अम्ल, शर्करा, विभिन्न कार्बनिक अम्ल, और प्रोटीन